"प्रकृति की पुलक व संस्कृति के सहचर बनने की उद्घोषणा है - अस्तित्व का व्याकरण"

पुस्तक का नाम - अस्तित्व का व्याकरण 
विधा - काव्य - संग्रह
कवि - श्री दशरथ कुमार सोलंकी
प्रकाशक - बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य - ₹ 200/-

व्यक्ति का यायावर मन चाहे जितनी भटकन की स्पृहा रखता हो किन्तु संतोष और सुकून उसे प्रकृति की छांव में ही मिलता है। प्रकृति मनुष्य के लिए औदार्य ईश्वर द्वारा प्रदत मात्र उपहार ही नहीं, उसकी चिरंजीवीकांक्षा के लिए शुभाशीष भी है। आशीष और उपहार आभ्यंतर के आनन्द और तुष्टि के लिए अतीव महत्वपूर्ण है। किंतु भौतिकवाद के भूचाल ने हमारी जड़ों को हिला कर रख दिया है और महत्वाकांक्षाओं के अनपेक्षित भाव ने हमको प्रकृति से दूर कर दिया है। प्रकृति हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है, इसी महत्ता और अर्थवत्ता का अवबोध कराने के लिए कवि श्री दशरथ कुमार सोलंकी ने 'अस्तित्व का व्याकरण ' नामक काव्य-कुंज का सृजन किया है। 

कवि इस संग्रह की कविताओं में व्यष्टि से समष्टि के सार रूपी अर्क का आस्वाद करवाने का संकल्प लेकर चले हैं। जैसे कि कवि ने इनको गाँव, पेड़ और प्रेम की कविताऍं कहा है। वाक़ई इस संग्रह में आपको गांव की गमक, पेड़ की प्रशस्ति-पीठिका और प्रेम का परस मिलेगा। गाँव, पेड़ और प्रेम की इन रचनाओं का लावण्य आपको किसी त्रिकोण की लक़ीरों में आबद्ध नहीं करेगा। बल्कि इन तीन मुख्य विषयों के साथ अलग-अलग सम्बद्ध अन्य कोणों पर भी कई कविताएँ मिलेगीं। ये सभी कविताएँ अन्ततः इस त्रिवेणी संगम में समाहित होकर पाठक की तुष्टि को अभिवृद्ध करती है। 

'अस्तित्व के व्याकरण' में वे कहते हैं कि व्यक्ति की नैतिकता कभी संज्ञाशून्य न हो, मैं (अहम्) से मुक्ति के साथ स्वयं को 'अकिंचन' मान व्यक्ति को संबंधों के कारक की उपादेयता को स्वीकार करना चाहिए। आभासी दुनिया के बोलबाले में आज भी वे घुलने-मिलने की क्रिया को महत्ता देते हैं। अस्तित्व से जुड़ा यह व्याकरण एक सांस्कृतिक यात्रा है, जो हमारे आध्यात्मिक और आभ्यंतर उन्नयन का मार्ग प्रशस्त करता है। आभ्यंतर की उत्कृष्टता का ही परिणाम है कि सरल व तरल मना कवि पिल्लू की हिंसा को देख उद्वेलित हो जाते हैं और रेशम को सौंदर्य का सर्वोच्च परिधान मानने की हमारी स्वीकार्यता व सोच पर तंज़ कसते हैं। 'हिंसा और सौन्दर्य' तथा 'रेशम और प्रेम' कविता यही कहती हैं।

एक तरह आज जहाँ सब विद्वता का भार उठाये घूम रहे हैं, वहीं कवि 'मात्रा-भार' कविता से काम्य मानस-मन को निर्भार होने के लिए कहते हैं। अपरिग्रह का संदेश देती इस रचना में आगे कवि अपने स्पष्टीकरण में कहते हैं कि निर्भार से तात्पर्य उत्तरदायित्व के अवबोध से मुक्त होना नहीं है। आवर्धन की स्वीकार्यता भी तब सार्थक है, जब किसी के दुःख या पीड़ा में उसका सम्बल बनना हो, इसलिए कवि कहते हैं कि 'कंधे का कांधा बन जाना सार्थक हो जाता तब'। परपीड़ा में साथ देने वाले कवि दुःखों से लड़ने का अकूत हौसला भी रखते हैं। 'अपने उजाले' कविता की ये पंक्तियाँ देखिए -
"मनुज के गौरव का वंशज हूँ
अपने उजाले स्वयं रचूँगा
अँधेरों का उत्तराधिकारी 
नहीं कदापि हो सकता मैं,
इस धरा के नेह-कणों में
अश्रुबीज नहीं बो सकता मैं।"

'मन में गाँव' ; 'गाँव शहर बन रहा' ; 'ग्रामतीर्थ (गाँव जाते हुए)' ; 'सूकड़ी नदी व मेरा गाँव' ; 'और मैं यहाँ हूँ (गाँव से दूर)' जैसी कविताएँ कवि के ग्राम्य जीवन और परिवेश के प्रति अनुराग की सहज अभिव्यक्ति है। इसलिए इन कविताओं में कभी वे अपनी जन्म-भूमि (गाँव) तिलोड़ा (जालोर) के तो कभी अपनी कर्म-भूमि के निवास स्थल पाल गाँव (जोधपुर) के तेजी से शहर होने पर अपनी अन्तस् की पीड़ा को व्यक्त करते हैं। कवि की कही एक सुंदर बात कि 'उनके मन की किसी कोने में आज भी जीवित है गाँव' हमारे लिए प्रेरणा है। गाँव शब्द कवि के चिंतन में किसी परिवेश का परिचय मात्र नहीं है बल्कि यह सनातन आदर्शों, मानवीय मूल्यों, संस्कृति-संरक्षण, सदाशयता व नैतिक साहचर्य में हुई हमारी उत्कृष्ट परवरिश की गूढ़ता गृहीत किये हैं। सूखी सूकड़ी को देखकर कवि की अंत:सलिला भावों के तटबंध का बेधन करने लगती हैं। सूखी सूकड़ी के बावजूद सुखी हमारे सुकवि लिखते हैं कि -
''सूकड़ी नदी ने अनगिनत दर्द दिये हैं...
दर्द के बावजूद प्रतीक्षा की यह दास्तान अनोखी है....
दर्द, प्रतीक्षा, प्रफुल्लता क्या कुछ नहीं शामिल 
यह एक गाँव और नदी की अनवरत प्रेम कहानी है।"

'चाह' कविता प्रकृति के बीच, प्रकृति के साथ रहने और प्रकृति के गुणों को स्वयं के व्यवहार में अभिव्यंजित और अभिव्यक्त करने वाली उदात्त कविता है। 'हरे होने के प्रमाण' और 'घास' कविता धरती की कोख से जन्मी उसकी सबसे नाजुक और प्रिय संतान की अदम्य जिजीविषा का यशोगान करती एक प्रेरक रचना है। घास को इंगित करते हुए कवि समाज से प्रश्न करते हैं कि -
"तुम तो अभी सजीवत हो ना 
फिर किसे सौंप दिए तुमने 
अपने हरे होने के प्रमाण 
अपनी हरीतिमा, सांस, लोच और सौंदर्य 
कहां छोड़ आए 
जीते-जी कैसे सूख गए तुम 
ओ चलते फिरते मानव ?"

प्रेम कवियों को कवि समझाते हैं कि शुष्कता से प्रेम की अभिव्यक्ति लाने से बेहतर है कि हृदय में सरस प्रेमसरि बहती रहे। 'इंसान और प्रेम' कविता में कवि कहते हैं कि इंसान प्रेम व स्नेह के अर्थ भूल गया हैं। इसलिए प्रेम की पावन अर्थवत्ता व स्नेह की शाश्वता हेतु इंसान को स्वार्थ का चोला उतारना ज़रूरी है। प्रेम अब हमारे प्रयोजनों की सूची में ही नहीं है, जबकि प्रेम जीवन के लिए अनिवार्य है। 'पुनर्पाठ' भी एक अच्छी व ज़रूरी कविता है।
 
'पेड़ और कविता' ; 'गिनती' ; 'सत्ता और पेड़' ; 'पत्ती के हक में' ; 'पेड़ का होना' ; 'दुःखी था पेड़' आदि रचनाएँ कवि के पेड़ के प्रति उनके साधु-सम स्वभाव व सम्मान की अनुभूति करवातीं हैं। ये कविताएँ कवि की इस आत्मस्वीकृति की आश्वस्ति करवाती है जिसमें ('इंसान और प्रेम' - कविता) वे लिखते हैं कि -
"इसलिए, मैं जब होता हूं प्रेम में 
कहीं चाहता हूं अभिसिंचन स्नेह का 
फूल, पत्ती या पेड़ बन जाता हूं..."

कवि के सृजन व स्वभाव पर उनके स्वाध्याय का सकारात्मक प्रभाव ही है कि 'जड़ों के साथ' और 'जड़ों के बीच' में वे पाब्लो नेरुदा को स्मृत करते हैं। कवि के कृतित्व व व्यक्तित्व दोनों में ही उनकी अध्ययनशीलता का वरेण्य लावण्य प्रकट होता है। 'रचना का माप' इसी वैचारिक प्रौढ़ता और व्यवहारिक प्रगाढ़ता की अर्थवत्तापूर्ण अभिव्यक्ति है।

'रेगिस्तान का रैवासी' कभी यहाँ 'देहरी पर दीया' लगाता रहा तो कभी 'बाती को बचाता रहा'। कभी 'चिड़िया का सपना' तो कभी 'परिंदों का पसीना' लिखता है, तो कभी वह 'चिड़ियों के आंदोलन' में उनके हक और हितों के लिए अपनी कलम उठाता है। रूस-यूक्रेन युद्ध, उत्तराखंड के जोशीमठ में भूमि के दरकने जैसे सामयिक विषयों के साथ ही 'युद्ध और कविता' जैसी रचनाएँ कवि के वर्तमान पर तीक्ष्ण व सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। युद्ध की विभीषिका, विष-वमन जैसी सामाजिक विद्रूपता पर आज के ये 'दशरथ' भी (अपनी कविताओं से) शब्द-भेदी बाण चलाने में निष्णात है किंतु यह भी उल्लेखनीय है कि उदारता व उदारता ही उनका प्रयोजन है। वे लिखते भी हैं कि "करुणा मेरी कविता का हिस्सा होती है"। विश्व में वैमनस्य से उपजे युद्ध हालातों को देखते हुए कवि की स्पृहा वांछनीय है कि -
"पेड़ परे होते हैं दुश्मनी से
देश और उनकी विभीषिकाओं से
मैं सत्ताओं के पेड़ बन जाने की प्रतीक्षा में हूं ''

कवि जब यात्राएं कविता में लिखते हैं कि "यूँ पूर्ण पृथ्वी ही मेरा घर है / पूरा आकाश ही मेरा आसरा" तब वसुधैव कुटुम्बकम्" का वेद-वाक्य हृदय में प्रार्थना सम शीतलता व शुचिता की अनुभूति करवाता है। दरश और परस की समवेत मुनादी करती ये कविताएँ मन के मनकों को प्रक्षालित कर उज्ज्वल करने का एक महती प्रयास है। स्वगत अनुभवों से लिखी इन कविताओं की शैली सुंदर व भाव - भूमि अत्यंत उर्वर है। न्यूनताओं और मन-ग्रंथियों को सुलझाने वाली विचारणीय कविताएँ हैं। 

राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित 115 पृष्ठों में आबद्ध यह संग्रह बढ़िया छपाई, कलेवर सज्जा और अपने पेपर क्वालिटी के साथ हार्ड बाउंड रूप में छपी है। पठनीय, मननीय व संग्रहणीय इस काव्य संग्रह में देशज की दीठ, स्थानीयता की सरलता, लोक का आलोक, प्रकृति की प्रांजलता, रेत का हेत, नभ की नव्यता, नदियों की निरापदता, माँ की महत्ता, पेड़ों का प्रसाद, संस्कृति का सहचर, लकीरों का लिपिबद्ध लंघन दिखेगा। 'अनुभूति' 'आदमी का मरे नहीं पानी' और 'उजास के अर्थ' के बाद प्रकृति की प्रशस्ति में लिखित 'अस्तित्व के व्याकरण' हेतु कवि श्री दशरथ कुमार सोलंकी जी को अशेष बधाई। मुझे विश्वास है कि  आपकी इन 'उदात्त कामनाओं का ककहरा' को भी हिंदी-साहित्य में बहुत मान-सम्मान मिलेगा। पाठकों का प्रेम और प्रकृति की पुलक बने इस संग्रह हेतु अपनी स्वस्तिकामनाओं के लिए अंततः मैं आपकी ही कविता 'बदलाव' की इन पंक्तियों को उद्धृत करना चाहूंगा -

"जो चाहो,
कि सृष्टि सपनों सी सुंदर बने
पुस्तकें अंततः बदल जानी चाहिए
प्रकृति की मुस्कान में"



कुलदीप सिंह भाटी