अखबार यानि जेल-जब्ती-जुर्माना


आज देश  जिस दौर से गुजर रहा है , उसमें लोकतंत्र के तीनों खंभों – कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका  से आम आदमी हताश और निराश दिखता है , सबसे  अधिक निराशा हो रही है स्वयंभू चोंथ खंभा बन बैठे  पत्रकारिता से । इंटरनेट के दौर में त्वरित, सत्य और प्रामाणिक खबर निकालना और प्रसारित करना बहुत सरल हो गया है । बावजूद इतनी तकनीकी सुविधाओं के आज अखबार या मीडिया एक पक्ष की तरफ इतना झुकता दिखता है कि उसके  सरिसर्प प्रजाति के होने का भ्रम हो जाता है । इस दौर में सौ या उससे अधिक साल पुरानी पत्रकारिता को नमन करने का मन करता है , जो घर फूँक तमाशा देखने, देश की आम आवाज को बुलंद करने और किसी  कानून या लोभ के भय  से  मुक्त  आजादी को समर्पित थी । तनिक विचार करें , एक तो उस दौर में साक्षरता की दर  इतनी नहीं थी , दूसरा आम आदमी की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं हुआ करती थी कि हर घर में अखबार खरीदा जा सके। तीसरा  मुद्रण तकनीकी बहुत जटिल और महंगी थी और फिर  ब्रितानी हुकूमत के फासिस्ट कानून । ऐसे में सन 1907 में इलाहबाद के साप्ताहिक स्वराज के सात सपादकों को जेल होना , गोरखपुर से साप्ताहिक स्वदेश का प्रकाशन शुरू करने के लिए 500 रुपये की जमानत मांगना ,बहुत से संपादकों को आजादी से संबंधित लेख छापने पर पिटाई झेलना,  जैसी घटनाएं  रोमांच और आदर पैदा करती हैं ।

“अंग्रेजी राज और हिन्दी की प्रतिबंधित पत्रकारिता” लेखक-प्रोफेसर संतोष भदौरिया , इस बात का पुख्ता दस्तावेज है कि भारतीय पत्रकारिता का इतिहास भारत की आजादी की लड़ाई का सहयात्री रहा है । ब्रितानी हुकूमत में भारतीय पत्रकारों ने न केवल प्रेस की स्वतंत्रता, बल्कि राष्ट्र की आजादी और समाज को सामाजिक भेदभाव, जातिवाद आदि से मुक्त करने के लिए लड़ाई लड़ी है और इस कारण न केवल उन पर कानूनी कार्यवाही हुई, अपितु उनके पत्र- पत्रिकाओं  को प्रतिबंधित भी किया गया ।  कई के घर जमीन की कुर्की कर दी गई । ऐसी ही कई घटनाओं का उल्लेख करते हुए  इस पुस्तक में बताया गया है कि भारतीय पत्रकारिता का इतिहास उसकी स्वाधीनता के अनवरत ह्रास का इतिहास रहा है। जिस अनुपात में भारतीय राष्ट्रीयता का विकास हुआ, उसी अनुपात में भारतीय समाचार पत्रों की स्वतन्त्रता पर आघात हुआ। ब्रितानी हुकूमत में सन 1822 में ब्रिटिश सरकार ने सर टॉमस मुनरो को समाचार-पत्रों की समस्या पर सुझाव प्रेषित करने के लिए कहा । टॉमस मुनरो ने अपनी 'डेंजर ऑफ ए फ्री प्रेस इन इंडिया' शीर्षक टिप्पणी में समाचार-पत्रों की स्वतन्त्रता को भारत में ब्रिटिश सरकार के लिए अत्यन्त हानिकारक बताया। यह वही काल है जब हिन्दी में कुछ लिखने –पढ़ने की भावना जोर मार रही थी और 30 मई 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में पहले हिन्दी अखबार 'उदंत मार्तण्ड का प्रारंभ हुआ । 1930  अर्थात 100 साल के यात्रा में भारतीय अखबारों पर अंग्रेजों का शिकंजा कडा होता गया ।  1857 के विद्रोह के बाद तो हिन्दी और उर्दू पत्रकारिता को बुरी तरह कुचल गया । प्रेस एक्ट के तहत  जब्ती, बंदी, जुर्माना आदि थोप दिए गए थे ।

वैसे यह किताब उत्तर प्रदेश के ऐसे अखबारों और पत्रिकाओं  पर अधिक केंद्रित है, जिन्हें  अपनी आजाद आवज बनाए रखने के लिए पाबंदी झेलनी पड़ी । उस दौर में मध्य प्रदेश और बिहार में ऐसे कई प्रकाशन रहे हैं । प्रतिबंधित साहित्य पर पहले से बहुत सी सामग्री है लेकिन यह किताब दर्शाती है कि इस दिशा में अभी और अधिक शोध और अन्वेषण की आवश्यकता है । कह सकते हैं कि यह किताब बहुत से नए शोध के विषय और बीज प्रदान करती है । पुस्तक की खासियत है आखिरी 25 पन्नों में  दी गई संदर्भ सूची जो कि प्रोफेसर भदौरिया द्वारा प्रस्तुत  प्रत्येक पंक्ति के पुख्ता प्रमाण प्रस्तुत करती है ।

आज जब पत्रकारिता मिशन नहीं, व्यापार हो चुकी है ।  बहुत से युवा बेहतर वेतन , सुविधा , चकाचौंध के लिए पत्रकारिता में आ रहे है, ऐसे में यह किताब  पत्रकारिता के नैतिक मूल्यों, विश्वसनीयता बनाए रखने की चुनौती का सामना करने के लिए संघर्ष और आजादी के लड़ाई  में शब्दों के महत्व का सशक्त संदर्भ ग्रंथ है ।


अंग्रेजी राज और हिन्दी की प्रतिबंधित पत्रकारिता

प्रोफेसर संतोष भदौरिया

लोकभारती  प्रकाशन , महात्मा गांधी मार्ग , प्रयागराज

पृष्ठ 192

रु 350.00 (पेपर बेक)